Friday, December 31, 2010

दर्द

दर्द एक एहसास ही तो है
अन्तर की परतों में दबा–
सुगबुगाता हुआ
ज्यों कांटों सी चुभन
दरकती उम्मीद
ढहता हुआ आसमान
याकि बुझते हुए सुर
मन में संजोया हुआ है
सीप के मोती की तरह

Tuesday, December 28, 2010

संस्कार

संस्कार
मेरे संस्कार मुझे बनाते हैं
एक परिष्कृत व्यक्तित्व की स्वामिनी
उठना बैठना चलना बोलना–सभी कुछ नपा तुला सा
मेरी शालीन हंसी सौम्य व्यवहार और सुरुचिपूर्ण पहनावा इन्हीं की देन है
पर यही संस्कार जब कुंडली मारकर बैठ जाते हैं मेरी चेतना पर
तो सिमट जाती है सोच– भेदभाव के दायरों तक
कौन छोटा कौन बड़ा क्या ऊँच क्या नीच – जैसे पूर्वाग्रह घेर लेते हैं मुझे
कुंठित हो जाते हैं मानदंड
तब यही संस्कार जन्म देते हैं एक बौनी संस्कृति को